एनएल चर्चा 61: येदियुरप्पा की डायरी, आडवाणी का टिकट कटना और अन्य

बीत रहा हफ़्ता रंगों के त्यौहार ‘होली’ के उल्लास में डूबा रहा. इस बीच तमाम घटनाएं अप्रभावित अपनी गति से घटती रहीं. तमाम चिंताजनक वारदातों से अप्रभावित प्रधानमंत्री के कार्यक्रम वक़्त और तारीख़ में बिना किसी फेरबदल के आयोजित होते रहे. ऐसे में नज़ीर अकबराबादी का होली पर लिखा गीत ‘होली की बहारें’ बेहद मानीखेज़ है. उनके लिए फिराक़ गोरखपुरी लिखते हैं कि नज़ीर दुनिया के रंग में रंगे हुए महाकवि थे. वे दुनिया में रहते थे और दुनिया उनमें रहती थी, जो उनकी कविताओं में हंसती-बोलती, जीती-जागती त्यौहार मनाती नज़र आती है. गीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं-“जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली कीऔर दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली कीपरियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली कीख़ुम, शीशे, जाम झलकते हों तब देख बहारें होली की.”अनिल यादव गीत के बारे में बताते हुए कहते हैं कि ऐसे वक़्त में जब सांप्रदायिक आधारों पर समाज को बांटने की कोशिशें बदस्तूर जारी हैं, यह गीत इस लिए भी सुना/ पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इससे पता चलता है कि हमारी साझी संस्कृति का रंग कितना गहरा है.रंगों के त्यौहार पर संक्षिप्त बातचीत व गीत के ज़िक्र के बात चर्चा के विषयों की ओर लौटना हुआ. इस हफ़्ते की चर्चा में भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा उम्मीदवारों की पहली सूची जारी हुई जिसमें वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी का नाम नहीं होने के बाद अब उनके राजनीतिक अवसान, पंजाब नेशनल बैंक से तकरीबन 13000 करोड़ रूपये के गबन के बाद देश से फरार चल रहे नीरव मोदी की लंदन में हुई गिरफ़्तारी, पत्रकार बरखा दत्त को गालियां देने व जान से मारने की धमकी देने वाले कुछ लोगों को पुलिस द्वारा हिरासत में लिए जाने, न्यूज़ीलैण्ड में मस्जिदों में घुसकर दो बन्दूकधारियों द्वारा तकरीबन 50 लोगों की हत्या की आतंकवादी घटना, प्रधानमंत्री के चुनावी अभियान ‘मैं भी चौकीदार’ और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की सीक्रेट डायरी प्रकाश में आने, उससे सामने आ रहे तथ्यों को चर्चा में विशेष तौर पर लिया गया.चर्चा में इस बार लेखक-पत्रकार अनिल यादव व न्यूज़लॉन्ड्री के स्तंभकार आनंद वर्धन शामिल हुए. चर्चा का संचालन हमेशा की तरह न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.कर्नाटक के डायरी-प्रकरण से चर्चा की शुरुआत करते हुए अतुल ने सवाल किया कि यह डायरी कथित तौर पर कांग्रेस के नेता वीके शशि कुमार के घर से ज़ब्त की गई थी. 2017 से यह डायरी वित्त मंत्रालय के संज्ञान में होने के बावजूद सरकार द्वारा डायरी को दबाकर बैठे जाने को राजनीतिक प्रक्रिया के लिहाज़ से कैसे देखा जाए? क्या इसे तेज़ होती चुनावी सरगर्मियों के बीच कांग्रेस पार्टी द्वारा सनसनी पैदा करने की एक कोशिश कह सकते हैं या फिर यह डायरी बताती है कि राजनीतिक संस्कृति में भारतीय जनता पार्टी भी उतनी ही करप्ट है जितनी कि कांग्रेस?जवाब देते हुए अनिल ने कहा, “देखिए! करप्ट तो सारी पार्टियां हैं. असल बात ये है कि कोई राजनीतिक पार्टी उस करप्शन का पॉलिटिकल मैनेजमेंट कैसे करती है. बीजेपी ने इसका मैनेजमेंट करने के लिए अरसा पहले ही ‘पार्टी विद अ डिफरेंस’ का नारा दिया.” इसी क्रम में 2014 के चुनाव के वक़्त के प्रधानमंत्री मोदी के नारे ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ का ज़िक्र करते हुए अनिल ने कहा, “पूरे कार्यकाल में बीजेपी के बड़े नेता लगातार कहते रहे हैं कि हमारी सरकार में सब हुआ लेकिन करप्शन नहीं हुआ. लेकिन अब एक के बाद जैसी ख़बरें आ रही हैं वो बताती हैं कि उनका जो करप्शन का प्रबंधन करने का तरीक़ा था वो नाकाम हो गया और ये जो करप्शन हो रहे हैं वो पहले से भी बड़े करप्शन हैं. मुझे लगता है कि नैतिक मुद्रा अपना करके, झूठ बोल करके बीजेपी ने छवि-प्रबंधन की जो कोशिश की थी अब उसके चीथड़े उड़ रहे हैं.”इसी कड़ी में इस बात का ज़िक्र करते हुए कि जब येदियुरप्पा का पूरा कार्यकाल भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा रहा व उन्हें इस्तीफ़ा भी देना पड़ा अतुल ने सवाल किया कि उस पूरे मामले के लिहाज से इस पूरी राजनीतिक संस्कृति पर गौर करते हुए क्या आपको लगता है कि यह महज़ चुनाव के पहले महज़ एक हथकंडा अपना जा रहा है?अपने जवाब में आनंद वर्धन ने कहा, “चुनाव के मौसम में इस तरह की तमाम कहानियां दोनों पक्षों से आएंगी. दूसरी बात कि ‘पार्टी विद अ डिफ़रेंस’ नब्बे के दशक में भाजपा की अपील रही है. मेरे ख़याल से उसके बाद उसकी यह अपील नहीं रही है. यह मुख्यधारा की राष्ट्रीय पार्टी है जो परसेप्शन की लड़ाई ज़्यादा लड़ेगी. और राजनीति में यह तात्कालिक जरूरतों पर हमेशा भारी पड़ता है.” Hosted on Acast. See acast.com/privacy for more information.

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